Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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ज्ञानशंकर ने और सरोष हो कर कहा– तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं और तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम इसी दम यहाँ से चली जाओ नहीं तो मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर बाहर निकाल देने पर मजबूर हो जाऊँगा। तुम कई बार मेरे मार्ग का काँटा बन चुकी हो, ‘‘लेकिन अबकी बार मैं तुम्हें हमेशा के लिए रास्ते से हटा देना चाहता हूँ।

विद्या ने त्यौरियाँ बदल कर कहा– मैं अपनी बहिन के पास आयी हूँ, जब तक वह मुझे जाने को न कहेगी, मैं न जाऊँगी।

ज्ञानशंकर ने गरज कर कहा– चली जा, नहीं तो अच्छा न होगा।

विद्या ने निर्भीकता से उत्तर दिया– कभी नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं!

ज्ञानशंकर क्रोध से काँपते हुए तड़िद्वेग से विद्या के पास आये और चाहा कि झपट कर उसका हाथ पकड़ लूँ कि गायत्री खड़ी हो गयी और गर्व से बोली– मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतने क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं? मुझसे मिलने आयी है और मैं अभी न जाने दूँगी।

गायत्री की आँखों में अब भी आँसू थे, गला अभी तक थरथरा रहा था, सिसकियाँ ले रही थी, पर यह विगत जलोद्वेग के लक्षण थे, अब सूर्य निकल आया था। वह फिर अपने आपे में आ चुकी थी, उसका स्वाभाविक अभिमान फिर जाग्रत हो गया!

ज्ञानशंकर ने कहा– गायत्री देवी, तुम अपने को बिलकुल भूली जाती हो। मुझे अत्यन्त खेद है कि बरसों की भक्ति और प्रेम की वेदी पर आत्मसमर्पण करके भी तुम ममत्व के बन्धनों में जकड़ी हुई हो। याद करो तुम कौन हो? सोचो, मैं कौन हूँ? सोचा, मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? क्या तुम इस पवित्र सम्बन्ध को इतना जीर्ण समझ रही हो कि उसे वायु और प्रकाश से भी बचाया जाये? वह एक आध्यात्मिक सम्बन्ध है, अटल और अचल है। कोई पार्थिक शक्ति उसे तोड़ नहीं सकती। कितने शोक की बात है कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भली-भाँति परिचित होकर भी तुम मेरी इतनी अवहेलना कर रही हो। क्या मैं यह समझ लूँ कि तुम इतने दिनों तक केवल गुड़ियों का खेल– खेल रही थीं? अगर वास्तव में यही बात है तो तुमने मुझे कहीं का न रखा। मैं अपना तन और मन, धर्म और कर्म सब प्रेम की भेंट कर चुका हूँ। मेरा विचार था कि तुमने भी सोच-समझ कर प्रेम-पथ पर पग रखा है और उसकी कठिनाइयों को जानती हो। प्रेम का मार्ग कठिन है, दुर्गम और अपार। यहाँ बदनामी है, कलंक है। यहाँ लोकनिन्दा और अपमान है, लांछन है– व्यंग्य है। यहाँ वही धाम पर पहुँचता है जो दुनिया से मुँह मोड़े, संसार से नाता तोड़े। इस मार्ग में सांसारिक सम्बन्ध पैरों की बेड़ी है, उसे तोड़े बिना एक पग भी रखना असम्भव है। यदि तुमने परिणाम का विचार नहीं किया और केवल मनोविनोद के लिए चल खड़ी हुई तो तुमने मेरे साथ घोर अन्याय किया। इसका अपराध तुम्हारी गर्दन पर होगा।

यद्यपि ज्ञानशंकर मनोभावों को गुप्त रखने में सिद्धहस्त थे, पर इस समय उनका खिसियाया हुआ चेहरा उनकी इस सारगर्भित प्रेमव्याख्या का पर्दा खोल देता था। मुलम्मे की अँगूठी ताव खा चुकी थी।

इससे पहले ज्ञानशंकर के मुँह से ये बातें सुनकर कदाचित् गायत्री रोने लगती और ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर क्षमा माँगती, नहीं, बल्कि ज्ञानशंकर की अभक्ति पर ये शब्द स्वयं उसके मुँह से निकलते। लेकिन वह नशा हिरन हो चुका था। उसने ज्ञानशंकर के मुँह की तरफ उड़ती हुई निगाह से देखा। वहाँ भक्ति का रोगन न था। नट के लम्बे केश और भड़कीले वस्त्र उतर चुके थे। वह मुखश्री जिसपर दर्शकगण लट्टू हो जाते थे और जिसका रंगमंच पर करतल-ध्वनि से स्वागत किया जाता था क्षीण हो गयी थी। जिस प्रकार कोई सीधा-सादा देहाती एक बार ताशवालों के दल में आकर फिर उसके पास खड़ा भी नहीं होता कि कहीं उनके बहकावे में न आ जाये, उसी प्रकार गायत्री भी यहाँ से दूर भागना चाहती थी। उसने ज्ञानशंकर को कुछ उत्तर न दिया और विद्या का हाथ पकड़े हुए द्वार की ओर चली। ज्ञानशंकर को ज्ञात हो गया कि मेरा मंत्र न चला। उन्हें क्रोध आया, मगर गायत्री पर नहीं, अपनी विफलता और दुर्भाग्य पर। शोक! मेरी सात वर्षों की अविश्रान्त तपस्याएँ निष्फल हुई जाती हैं। जीवन की आशाएँ सामने आकर रूठी जाती हैं– क्या करूँ। उन्हें क्योंकर मनाऊँ? मैंने अपनी आत्मा पर कितना अत्याचार किया, कैसे-कैसे षड्यंत्र रचे? इसी एक अभिलाषा पर अपना दीन-ईमान न्योछावर कर दिया। वह सब कुछ किया जो न करना चाहिए था। नाचना सीखा, नकल की, स्वाँग भरे, पर सारे प्रयत्न निष्फल हो गये। राय साहब ने सच कहा था कि सम्पति तेरे भाग्य में नहीं है। मेरा मनोरथ कभी पूरा न होगा। यह अभिलाषा चिता पर मेरे साथ जलेगी। गायत्री की निष्ठुरता भी कुछ कम हृदयविदारक न थी। ज्ञानशंकर को गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, पर वह उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध थे। उसकी प्रतिभा, उदारता स्नेहशीलता, बुद्धिमत्ता, सरलता उन्हें अपनी ओर खींचती थी। अगर एक ओर गायत्री होती और दूसरी ओर उसकी जायदाद और ज्ञानशंकर से कहा जाता तुम इन दोनों में से जो चाहे ले लो तो अवश्यम्भावी था कि वह उसकी जायदाद पर ही लपकते लेकिन उसकी जात से अलग हो कर उसकी जायदाद लवण-हीन भोजन के समान थी। वही गायत्री उनसे मुँह फेर कर चली जाती थी।

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